Tuesday, 29 December 2009

माटी और गुलाब

माना की हैं माटी हम
नहीं हैं फूल गुलाब से
जाना की है मदहोश ज़माना
गुलाब के ही सौरभ से

सुनो पर हम निराश नहीं हैं
डटे रहेंगे विश्वास से
गरजेंगे बस कर्म के बादल
संकल्प हमारा आप से

भीगेगी जब सारी धरती
बरखा की इक फुहार से
महकेगा तब यही ज़माना
सौंधी-सौंधी बहार से

सौरभ सेठिया
३ अप्रैल १९९४

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